Monday, 1 September 2008

२४-घंटा न्यूज़ चैनल्स कितने निष्पक्ष, कितने दिल साफ़...


Written by Anil Singh
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आज का दौर २४-घंटे प्रसारित होने वाले न्यूज़ चैनल्स का दौर है । यही कारण है कि कुछ विशेषज्ञ यह मानने लगे हैं कि अगले कुछ दशकों में समाचारपत्रों का विलुप्त होना लगभग तय है । उनका यह आंकलन कितना सही है वर्तमान समय मे यह एक बहस का मुद्दा है; और इसे भविष्य पर ही छोड़ देना बेहतर होगा ।
परंतु निश्चित रूप से कुछ ऐसे प्रश्न अवश्य हैं जिनको हम आज सार्वजनिक बहस के दायरे में ला सकते है ।
आइये इन प्रश्नों पर चर्चा करते हैं ।
यह सही है कि २४-घंटे प्रसारित होने वाले न्यूज़ चैनल्स आज समाचारों का पहले से ज्यादा विश्लेषण कर रहे हैं; ऐसे अनसुने अनजान व्यत्ति की कहानी कह रहे हैं जो अब तक इस एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले देश में सिर्फ एक संख्या भर था; सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों की जवाबदेही बढ़ा रहे हैं ; और समाचारों को एक रोचक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं ।

कोई शक नहीं कि खबर आज की दुनिया का एक बड़ा व्यवसाय बन गया है ।

परंतु अन्य व्यवसायों की ही तरह इस व्यवसाय में भी कुछ ऐसी विसंगतियां आ रही हैं , जो समाचार की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं ।
समाचार की गुणवत्ता का अर्थ-- उसकी निष्पक्षता और उसके दिल साफ होने के गुण से है ।
सरल शब्दों में कहें तो कुछ समय से यह लगने लगा है कि व्यवसायिक व व्यक्तिगत स्वहितों के चलते ये न्यूज़ चैनल्स समाचारों कि गुणवत्ता के साथ समझौता कर रहे हैं ।
कई कारक समाचार की गुणवत्ता को प्रभावित करते है, इनमें से एक है निष्पक्षता । एक निष्पक्ष ढंग से दिखाये गए समाचार की गुणवत्ता अधिक होती है । निष्पक्षता में कमी समाचार की गुणवत्ता घटाती है ।

मिसाल के तौर पर इस उदहारण को ही लीजिए ।

पिछले कुछ पखवाड़ों से अमरनाथ भूमि विवाद सभी न्यूज़ चैनलों पर एक प्रमुख समाचार रहा है । यदि इस विवाद की वैधता को बहस से अलग रखें, और केवल समाचार के प्रस्तुतिकरण पर ध्यान केन्द्रित करें तो एक अहम बात सामने आती है । वह है समाचार की भेदभावपूर्ण प्रस्तुति |

इस विवाद के दौरान ,दो स्थानों पर विरोध जलूस एवं प्रदर्शन हुए जम्मू में विभिन्न स्थानों पर और जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में ।
दोनों ही मामलों में प्रदर्शन के दौरान समान तरह की गतिविधियों हुई । भीड़ उग्र हुई; उसने वाहनों और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया; और पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण मे करने के लिए लाठियाँ भाँजी, आंसू गैस के गोले छोड़े या गोली चलाई ।
प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों को हुआ नुकसान एक दुखद घटना है । इसमे कोई शक नहीं ।

लेकिन उतनी ही दुखद है इन दो घटनाओं की पक्षपातपूर्ण प्रस्तुति ।
जब भी कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह कोई विरोध प्रदर्शन करता है उसकी एक सोची समझी मान्यता होती है; जिसके लिए वह स्थापित नियमों को या तो तोड़ती है या तोड़ने का प्रयास करती है । इसके विपरीत पुलिस का दायित्त्व, इस भीड़ को निषेध स्थानों में जाने और उग्र होने से रोकना है ।

(यद्यपि हमारी पुलिस के दंगा नियंत्रण के तरीके भी एक चर्चा का मुद्दा हैं , उदाहरण के लिए प्रदर्शनकारियों के पत्थरों का पत्थरों से उत्तर देना; एक प्रशिक्षित बल का इस प्रकार से व्यवहार करना कितना उचित है यह अनुमान लगा पाना बहुत कठिन नहीं है । फिर भी, समाज में अराजकता को रोकना पुलिस का एक महत्वपूर्ण कार्य है,जिसमें उन्हें सहयोग करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है । भारत का संविधान नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की ही व्यवस्था नहीं करता; नागरिकों के कुछ मौलिक कर्त्तव्य भी हैं । उपरोक्त कर्त्तव्य उनमे से एक है । )

अब आप के लिए एक प्रश्न, क्या आप इन दो स्थानों पर हुए प्रदर्शनों,जिनमे क्रियाओं का प्रकार और क्रम समान है ; में भेद कर सकते हैं ?
लेकिन आज की बहस का मुद्दा बने २४-घंटा न्यूज़ चैनल्स यह भेद करने में सक्षम हैं ।

फलस्वरूप जहाँ एक स्थान पर हुआ प्रदर्शन "उग्र भीड़ का अनियंत्रित होकर अमूल्य राष्ट्रीय व नागरिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना और पुलिस का विवश होकर कार्रवाही करना"; दिखाया जाता है ।

वहीं दूसरे स्थान पर हुआ प्रदर्शन "निहत्थे , शांतिपूर्ण , दुखी प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की क्रूरता " के रूप मे प्रस्तुत किया जाता है ।
संक्षेप मे समाचार चैनल की विचारधारा ओर स्वहित इस बात का निर्णय करती है कि पुलिस या भीड़ मे से किसे बर्बर और किसे शोषित बनाया जाय ।
यहां एक बात कहना आवश्यक है कि ज्यादातर अखबार,कुछ अपवादों को छोड़कर, आज भी निष्पक्षता के साथ समाचार प्रकाशित कर रहे हैं । शायद इसका मूल कारण लेखन क्रिया का टेलीविज़न प्रसारण की तुलना में एक अधिक जिम्मेदारी वाली क्रिया होना है । शायद एक लिखित शब्द की अनन्त छवि होने का विश्वास और अनुभव, लेखन को बोलने के विपरीत एक अधिक जिम्मेदार क्रिया बनाता है ।

समाचार चैनलों की यह पक्षपातपूर्ण प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को जन्म देती है ।

इस तरह की पक्षपातपूर्ण प्रस्तुति आखिर किसका हित साधती है-- देश का, जिसकी संपत्ति क्षतिग्रस्त की जाती है या पुलिस का , जिसके कार्य को बाधित किया जाता है ?

...या उन लोगों का जो पहले तो बसों को आग लगाते हैं और बाद में खराब परिवहन सुविधाओं की शिकायत करते हैं ?
क्या एक वैध समस्या और उससे जन्मा दुख़ किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को राष्ट्रीय संपत्ति को क्षति पहुँचाने का अधिकार दे देती है ?

...या २४-घंटे प्रसारित होने वाले न्यूज़ चैनल्स का ?

शेष अगले पोस्ट मे ...
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