दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा को देखने का दृष्टिकोण अलग अलग हो सकता है | पर इस हिंसा से जुड़े कुछ बिंदु ऐसे हैं जो हर सामन्य व्यक्ति की समझ आने चाहिए | इन बिंदुओं पर यदि आप सहमत नहीं हैं तो आपको अपने सोचने के नजरिये में कुछ बदलाव करना चाहिए |
ऐसे 2 बिंदु...
इस प्रकार की किसी भी हिंसा में सबसे अधिक हानि (नुक़सान) सामान्य लोगों की ही होती है | जिसके पास जो है हिंसा वह ले जाती है | जिसके पास अचल संपत्ति है उसे उसकी हानि होती है | जिसके पास दुकान है वह ख़तम हो जाती है | जिसके पास केवल थोड़ा धन है वह लूट लिया जाता है | जिसके पास कुछ नहीं है वह अपने जीवन को खोता है | यह किसी भी भीड़ के द्वारा की गई हिंसा के लिए सही जान पड़ती है | कुछ एक सब खो बैठते हैं | इसके अतिरिक्त, छोटे समय के भीतर ही सामाजिक सद्भाव बिगड़ जाता है | लम्बे समय में दुकानदारी और स्वहित की भी हानि हो जाती है |
आप इन बिंदुओं पर चिंतन करें, आप सब इन बातों को ठीक पाएंगे | देश की समूची अर्थव्यवस्था पर चोट दिखने में तो कुछ महीने या साल लगते हैं पर हिंसाग्रस्त शहरों की दुकानदारी, काम धंदा उस दिन से ही बिगड़ जाता है जिस दिन से हिंसा शुरु होती है | ऐसा न सोचें की यह केवल काल्पनिक दृश्टिकोण है | यह काल्पनिक नहीं है, सत्य है | दंगे किसी भी कारण प्रारम्भ हुए हों इसमें पिसते सामान्य लोग ही हैं | और ये जात, धर्म नहीं देखते |
दिल्ली हिंसा के बाद इससे हुई हानि की भरपाई को भी देखें |
सामन्य व्यक्ति को हुई हानि की भरपाई कभी नहीं होती | उदहारण के लिए अब तक घोषित मुआवज़े को ही देखें | पुलिस के जिस कर्मी की जान गई उसके लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने रुपये 1 करोड़ का मुआवजा घोषित किया | परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी का आश्वासन भी दिया | इसके पलट, दंगों में मारे गए सामान्य लोगों को रुपये 10 लाख और घायलों को रुपये 5 लाख की राशि की घोषणा हुई | ऐसे लोग जिनकी घर, दुकान या व्यवसाय जला दिए गए या ख़त्म कर दिए गए, उनको जीवन पुनः बनाने के लिए रुपये 5 लाख तक की मदद | कहने का मतलब यह है की मुआवजा हानि देख कर नहीं, व्यक्ति का कद देख कर दिया जाता है | जिसको रुपये 1 करोड़ मिले, उसे नौकरी भी मिली | सामान्य लोगों के लिए मान लिया गया की रुपये 10 लाख में कमाने वाले की कमी पूरी हो गई, 5 लाख में इलाज हो गया या रुपये 5 लाख में जीवन फिर से बन गया |
सरल भाषा में कहें तो किसी भी प्रकार की भीड़ हिंसा में सबसे अधिक सामान्य आदमी ही पिसता है | सामान्य का अर्थ ऐसे सब लोग हैं जो विशेष नहीं हैं |
तो इससे हमें क्या समझ में आता है | यही की दिल्ली हिंसा को किसी धार्मिक या अन्य संकीर्ण दृश्टिकोण से सोचने वाले किसी भी व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है |
इस लिए किसी भी भीड़ हिंसा या सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा न दें | अपना हित समझें | आप विशिष्ट हैं तो कोई बात नहीं | पर यदि आप सामान्य हैं तो इस बात को समझ लें पिसता सामान्य ही है | शांति बनाये रखें | जहाँ संख्या में कम हों वहां भी शांति बनाएं | जहाँ संख्या में अधिक हों वहां भी शांति बनाएं |
अपना हित समझें तब भी जब सोचें, तब भी जब अपने जन प्रतिनिधि चुनें | धर्म सोच पर हावी हो जाए यह ठीक नहीं |
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